188. किस्सा कर्मों का !
[ 1 ]
ये दिल भी क्या चीज़ है यारों
उलझा उलझा रहता है
खुद ही सवाल करता है
जवाब खुद ही देता है
" क्या कर सकता हूं , क्या करूं ? "
कश्मोकश में जीता है
[ 2 ]
समझता है दुनिया को
इतना भी नादान नहीं
बेबसी से निकल पाए
इतना भी होशियार नहीं
[ 3 ]
कुछ अपनों से, कुछ अपने से
कुछ भाग्य से, कुछ कर्मों से
शिकायतों का हिसाब नहीं
कब, कैसे , क्यूं हुआ ?
इसका कोई जवाब नहीं
[ 4 ]
इसके विचार अलग हैं ,
सोच अलग है
औरों से मेल नहीं खाती है
मायूसी , बेबसी , लाचारी
कोने में इसलिए रहती है
शोर- शराबे दुनिया के में
चुप-चुप सी ये रहती हैं
उम्मीद जगेगी कब मेरी
निगाहें टिकाए रहती हैं
[ 5 ]
छोड दो यह सब सोचना-वोचना
दुनिया भी तो जीती है
कोई थोडे, कोई ज़्यादा
गम के घूंट सब पीती है
ये खुशी ,ये गम , सब जीवन का हिस्सा है
ध्यान से देखो गर तो
अपने कर्मों का किस्सा है
[ 6 ]
ये पक्षी , ये पेड-पौधे
ये राजा , ये रजवाडे
गम की धूप क्या सहते नहीं
क्या होना है, क्या होगा ?
लकीरों में इनकी क्या लिखा नहीं ?
[ 7 ]
कुछ और नहीं--
जीवन का बदलाव है ये
ग़र्मी -सर्दी, पतझड-बहार
समय का बस चक्र है ये
प्रश्न नहीं किस हाल में है तू
किस्सा तो कर्मों का है ये ।।
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लेखिका- निरुपमा गर्ग
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