206 किसने किससे कहा- ?
किसने किससे कहा- ?==
बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥ =====नारद ने हिमालय राज व उनकी पत्नी मैना से कहा====== |
- भावार्थ-
शिवजी वर देने वाले, शरणागतों के दुःखों का नाश करने वाले, कृपा के समुद्र और सेवकों के मन को प्रसन्न करने वाले हैं। शिवजी की आराधना किए बिना करोड़ों योग और जप करने पर भी वांछित फल नहीं मिलता॥4॥
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1. * धीरज धर्म मित्र
अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर
क्रोधी अति दीना॥4॥
=================== माता अनुसूया ने माता सीता से कहा ।=======================
2.जासु कथा कुभंज रिषि गाई।
भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई।।
सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत
जाहि सदा मुनि धीरा।।
उत्तर-महादेव जी ने पार्वती
जी से
चौपाई 3.जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न
सँदेहा॥ ========महादेव ने माता सती से कहा============ |
भावार्थ-
यद्यपि इसमें
संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए
भी जाना चाहिए तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं
होता।
4.
बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु
सेवक मन रंजन॥ |
भावार्थ-
शिवजी वर देने वाले, शरणागतों के दुःखों का नाश करने
वाले, कृपा के समुद्र और सेवकों के मन को प्रसन्न करने वाले
हैं। शिवजी की आराधना किए बिना करोड़ों योग और जप करने पर भी वांछित फल नहीं
मिलता॥4॥
उत्तर- नारद जी ने हिमालय राज से कहा ।
5.
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी।
बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥ |
भावार्थ-
माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना
ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी
हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है॥2॥
उत्तर – भगवान
शिव ने श्री हरि से कहा
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6.
नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु
उजरउ नहिं डरउँ॥ |
भावार्थ-
अतः मैं
नारदजी के वचनों को नहीं छोड़ूँगी, चाहे घर बसे या उजड़े, इससे मैं नहीं
डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में
भी सुगम नहीं होती॥4॥
उत्तर – माता पार्वती ने सप्त ऋसःइ यों को
7.*कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल
करउँ बिसोकी॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब
उर अंतरजामी॥1॥
भावार्थ:-(हे पार्वती !)
जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे (राम मंत्र देकर)
शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त कर देता हूँ), वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ श्री
रामचन्द्रजी जड़-चेतन के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जानने वाले हैं॥1॥
8. जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव
सबहि डेराहीं॥4॥
भावार्थ:-इन्द्र के मन में यह डर हुआ कि देवर्षि नारद मेरी पुरी (अमरावती)
का निवास (राज्य) चाहते हैं। जगत में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौए की
तरह सबसे डरते हैं॥4॥
उत्तर- शिव्जी ने पार्व्ती से
9. * कुपथ माग रुज
ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस
अंतरहित प्रभु भयऊ॥1॥
भावार्थ:-हे योगी मुनि! सुनिए, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो
वैद्य उसे नहीं देता। इसी प्रकार मैंने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है। ऐसा
कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए॥1॥
10-* जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ
तुरत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि
परतीति तजहु जनि भोरें॥3॥
भावार्थ:-(भगवान ने कहा-)
जाकर शंकरजी के शतनाम का जप करो,
इससे हृदय में तुरंत शांति होगी।
शिवजी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न छोड़ना॥3॥
उत्तर-श्री हरि ने नारद से
11. हरि अनंत हरि कथा
अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि
जाहिं न गाए॥3॥
भगवान शिव ने माता पार्वती से कहा
भावार्थ:-श्री हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी
अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। श्री रामचन्द्रजी के
सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते॥3॥
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12. * तुलसी जसि भवतब्यता
तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै
जाइ॥159(ख)॥
भावार्थ:-तुलसीदासजी कहते हैं- जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता मिल
जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है॥159 (ख)॥
13.
काने
खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि। =====माता कैकयी ने मंथरा से कहा======== |
भावार्थ
कानों, लंगड़ों
और कुबड़ों को कुटिल और कुचाली जानना चाहिए। उनमें भी स्त्री और खासकर दासी! इतना
कहकर भरतजी की माता कैकेयी मुस्कुरा दीं॥14॥
14. नहिं असत्य सम पातक
पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान
बिदित मनु गाए॥3॥
भावार्थ:-असत्य के समान पापों का समूह भी नहीं है। क्या करोड़ों घुँघचियाँ
मिलकर भी कहीं पहाड़ के समान हो सकती हैं। 'सत्य' ही समस्त उत्तम सुकृतों (पुण्यों) की
जड़ है। यह बात वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है और मनुजी ने भी यही कहा है॥3॥
उत्तर-राजा दशरथ ने कैकयी से कहा यह
कहते हुए कि वे वचन के पक्के हैं ।
15.
* सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु
मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि
सकल संसारा॥4॥
भावार्थ:-हे माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी है, जो पिता-माता के वचनों का अनुरागी (पालन करने वाला) है। (आज्ञा पालन द्वारा) माता-पिता को संतुष्ट करने वाला पुत्र, हे जननी! सारे संसार में दुर्लभ है॥4॥
उत्तर-र-श्री राम ने माता कैकई से कहा
16. * धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु
चरित सुनि जासू॥
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु
मातु प्रान सम जाकें॥1॥
भावार्थ:-(उन्होंने फिर कहा-)
इस पृथ्वीतल पर उसका जन्म धन्य है, जिसके चरित्र सुनकर पिता को परम आनंद
हो, जिसको माता-पिता प्राणों के समान प्रिय हैं, चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) उसके करतलगत
(मुट्ठी में) रहते हैं॥1॥
उत्तर –श्री राम ने दशरथ से कहा
17. * मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि
करहिं सुभायँ।
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग
जायँ॥70॥
भावार्थ:-जो लोग माता,
पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को
स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो जगत में
जन्म व्यर्थ ही है॥70॥
उत्तर-श्री राम ने लक्श्मन से कहा जब
वहवन जाने की ज़िद्द कर रहे थे ।
18.- * अवध तहाँ जहँ राम
निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध
तुम्हार काजु कछु नाहीं॥2॥
भावार्थ:-जहाँ श्री रामजी का निवास हो वहीं अयोध्या है। जहाँ सूर्य का
प्रकाश हो वहीं दिन है। यदि निश्चय ही सीता-राम वन को जाते हैं, तो अयोध्या में
तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है॥2॥
उत्तर-
माता सुमित्रा ने लक्श्मन से कहा ।
19-* सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईसु देइ
फलु हृदयँ बिचारी॥
करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि
कह सबु कोई॥4॥
भावार्थ:-शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर हृदय में विचारकर फल देता है, जो कर्म करता है, वही फल पाता है।
ऐसी वेद की नीति है, यह सब कोई कहते हैं॥4॥
उत्तर-राजा
दशरथ ने राम को वन के लिए चलते हुए कहा ।
20-काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम
भोग सबु भ्राता॥2॥
भावार्थ:-तब लक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई
मीठी और कोमल वाणी बोले- हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब
अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥2॥
उत्तर- लक्ष्मणजी केवट से बोले ।
21- * धरमु न दूसर सत्य
समाना। आगम निगम पुरान बखाना॥
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें
तिहूँ पुर अपजसु छावा॥3॥
भावार्थ:-वेद, शास्त्र और पुराणों में कहा गया है कि सत्य के समान दूसरा धर्म
नहीं है। मैंने उस धर्म को सहज ही पा लिया है। इस (सत्य रूपी धर्म) का त्याग करने
से तीनों लोकों में अपयश छा जाएगा॥3॥
उत्तर- श्री राम ने सुमन्त्र जी से कहा जब वह उनसे अयोध्या वापिस चलने के लिए कह रहे थे ।
22. * सचिव सत्य श्रद्धा
प्रिय नारी। माधव सरिस मीतु हितकारी॥
चारि पदारथ भरा भँडारू। पुन्य प्रदेस
देस अति चारू॥2॥
भावार्थ:-उस राजा का सत्य मंत्री है, श्रद्धा प्यारी स्त्री है और श्री
वेणीमाधवजी सरीखे हितकारी मित्र हैं। चार पदार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) से
भंडार भरा है और वह पुण्यमय प्रांत ही उस राजा का सुंदर देश है॥2॥
उत्तर –यहां श्री राम प्रयागराज को
तीर्थों का राजा बता रहे हैं ।
23. अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा।।
वन को प्रस्थान करते समय माता कौशल्या ने सीताजी को बार-बार हृदय से लगाया और धीरज धरकर शिक्षा दी और आशीर्वाद दिया कि जब तक गंगाजी और यमुनाजी में जल की धारा बहे, तब तक तुम्हारा सुहाग अचल रहे॥4॥
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