206 श्रीरामचरितमानस- किसने किससे कहा- ?


                                 


                   श्री रामचरित में किसने किससे किस सन्दर्भ में  कहा-?

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बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥
इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥4॥

  =====नारद  ने माता पार्वती की कुंडली  देख कर जब हिमालय राज व  उनकी पत्नी  मैना  से कहा कि उनका पति एक महान वैरागी होगा तब घबरा कर मैना ने उपाय पूछा । नारद जी ने उन्हें बताया- शिवजी वर देने वाले, शरणागतों के दुःखों का नाश करने वाले, कृपा के समुद्र और सेवकों के

मन को प्रसन्न करने वाले हैं। शिवजी की आराधना किए बिना करोड़ों योग और जप करने पर भी वांछित फल नहीं मिलता । अत: पार्वती जी यदि शिव-आराधना  करें तो सब ठीक  हो जाएगा। 

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1. * धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4

 माता अनुसूया ने पतिव्रत धर्म समझाते हुए माता सीता से  कहा -कि हे सीते! धैर्य, धर्म, मित्र और नारी यानी पत्नी की परख आपत्ति के समय ही होती है। इसीलिए पत्नी को अपने जीवन साथी का हर कदम साथ देना चाहिए।

अगर किसी स्त्री का पति वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और गरीब भी है तो उसे अपने पति का पूरा सम्मान करना चाहिए। निस्वार्थ भाव से अपने जीवन साथी से प्रेम करना चाहिए और समर्पण का भाव बनाए रखना चाहिए। यही सुखी वैवाहिक जीवन का मूल सूत्र है।

2.जासु कथा कुभंज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई।।
सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा।।

उ. जब पार्वती जी ने महादेव जी ने पूछा-कि श्री राम उत्कृकौन हैं?-साधारण दशरथ पुत्र या परमब्रह्म है? तब महादेव जी बोले-जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, तथा  जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं। ये वही मेरे इष्टदेव रघुवीर हैं ।

3.जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥

तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥

प्रजापति दक्ष ने बृहस्पतिस्तव यज्ञ कराया किन्तु भगवान शिव को द्वेष के कारण नहीं  बुलाया ।  जब पार्वती  जी ने  अपने पिता के घर  जाने  की अनुमति  भगवान शिव से  मांगी  तो  उन्होंने  उन्हें समझाते हुए कहा‌-

यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता।
4.

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥2

इधर पार्वती जी भगवान शिव को पाने के लिए तपस्या कर रही थी उधर देवतागण तारकासुर से दुखी हो रहे थे । इसलिए श्री हरि भगवान शिव के समक्ष प्रकट हुए और उनसे विवाह करने  के लिए कहने लगे। तब भग्वान शिव बोले- मेरे पूज्य  आराध्य । आप  जैसा कहेंगे ,मैं वैसा ही करूंगा । क्योंकि शास्त्र कहते हैं कि मातापिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर मान लेना चाहिए। जो ऐसा नहीं करते वे सिर धुन कर पछताते हैं । फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ ! आपकी आज्ञा मैं सहर्ष धारण करता हूं

5.

नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥
गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥4

श्री हरि के अन्तर्ध्यान होने पर भगवान शिव ने पार्वती
जी की परीक्षा लेने के लिए उनके पास सप्तऋषियों को भेजा । ऋषियों ने वहाँ जाकर पार्वती जी से कहा-

हे शैलकुमारी ! तुम किसलिए इतना कठोर तप कर रही हो?भला, कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है?उन्होंने जाकर दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया था, जिससे उन्होंने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा। चित्रकेतु के घर को नारद ने ही चौपट किया। फिर यही हाल हिरण्यकशिपु का हुआ ।जो स्त्री-पुरुष नारद की सीख सुनते हैं, वे घर-बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं। उनका मन तो कपटी है, शरीर पर सज्जनों के चिह्न हैं। वे सभी को अपने समान बनाना चाहते हैं । तब मन,क्रम,वचन से शिव-अनुरागी पार्वती जी बोली-हे ऋषियों! मैं नारदजी के वचनों को नहीं छोड़ूँगीचाहे घर बसे या उजड़ेइससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं हैउसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती॥

6.मंगल भवन अमंगल हारी  द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी

   कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ।। 
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी ।। 2 ।।

 

लंका जला कर हनुमान जी श्री राम  के पास पहुंचने से पहले सीता जी के पास  गए और उनसे  पहचान की कोई  चीज़  मांगी । तब  तब सीता जी ने चूड़ामणि उतारकर दी  और बोली-हे तात ! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना-हे प्रभु ! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्ण काम है ( आपको किसी प्रकार की कामना नही है ) , तथापि दीनो ( दुःखियो ) पर दया करना आपका विरद है ( और मै दीन हूँ ) अतः उस विरद को याद करके, हे नाथ ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए ।।जो मंगल करने वाले और अमंगल हो दूर करने वाले है , वो दशरथ नंदन श्री राम  मुझपर अपनी कृपा करे।

6.सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती ।। 3 ।।

रावण के भाई विभीषण सदा राम-राम रटते रहते थे । हनुमान जी को देख कर उन्हें ऐसे लगने लगा कि वे उनके सामने एक तुच्छ भक्त हैं । पता नहीं श्री राम  उन्हें मिलेंगे या नहीं ।

तब हनुमान जी ने उन्हें दिलासा देते हुए कहा- कि  प्रभु की यही रीति है कि वे सेवक पर सदा ही प्रेम किया करते हैं।

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।

कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥

मुझे ही देखो-मै ऐसा अधम हूँ, फिरभी श्री राम चन्द्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है । भगवान् के गुणो का स्मरण करके हनुमान् जी के दोनो नेत्रो मे ( प्रेमाश्रुओ का ) जल भर आया ।। 

 

7.*कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥

सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥1

(हे पार्वती !) जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे (राम मंत्र देकर) शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त कर देता हूँ), वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी जड़-चेतन के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जानने वाले हैं॥ इस चौपाई में प्रभु पार्वती जी को बता रहे हैं कि यदि 

मृत्यु के समय मरने वाले के कान में "राम नाम सत्य है" बोल दिया जाए तो उनकी मुक्ति हो जाती है ।

8. जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥4

एक बार नारद पृथ्वी पर  उतर कर नारायण का जाप  करने लगे । इन्द्र ने उनकी तपस्या भंग  करने के लिए स्वर्ग से अप्सराएं भेजी क्योंकि इन्द्र के मन में यह डर हुआ कि देवर्षि नारद मेरी पुरी (अमरावती) का निवास (राज्य) चाहते हैं। शिव जी ने पार्वती जी से  कहा - हे  भवानी । जगत में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौए की तरह सबसे डरते हैं॥

9. * कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥1

 नारद को अभिमान हो गया कि वह नारायण का इतना बडा भक्त है कि अप्सराएं भी उसका कुछ न बिगाड सकी । अपनी प्रशंसा करने के लिए वह पहले महादेव के पास गया और फिर नारायण के पास जा कर डींगें हांकने  लगा । उसका अभिमान तोडने के लिए  श्री हरि ने अपनी  माया से  विश्व मोहिनी की रचना कर  डाली जिसे  देख कर नारद  भक्ति को भूल गया और भगवान नारायण से  बोळा- भगवन । मैं विश्व मोहिनी से विवाह करना चाहता हूं । कृपया मुझे अपना रूप दे कर सहायता कीजिए । लेकिन भगवान जानते थे कि यदि वह  संसार के बंधन में फंस  गया  तो वहां से निकलना मुश्किल हो जाएग़ा । और मैं केवल उसे सबक सिखाउंगा लेकिन उसकी हानि नहीं होने  दूंगा । अत: वह  नारद से प्रेम से बोले-

हे योगी मुनि! सुनिए, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देता। इसी प्रकार मैंने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है। ऐसा कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए॥1

       10-* जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥

कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥3

भगवान  नारायण ने नारद को बंदर  का रूप  दे दिया ताकि विश्वमोहिनी उनके गले में वरमाला न 

डाले । और स्वयं विश्व मोहिनी से विवाह कर लिया । यह  देख कर  नारद गुस्से से  लाल हो गए । और श्री हरि को श्राप दे दिया कि तुम भी  पृथ्वी पर जाओगे  और पत्नी के वियोग में तडपोगे । इतना कहते ही विश्वमोहिनी नारायण में समा गई । तब  श्री हरि बोले-नारद । जिसको तुम विश्वमोहिनी समझ रहे

थे वो तो मेरी  माया थी जिसे मैंने  तुम्हारे भले के लिए रचा था । नारद ! अब जाओ और जाकर शंकरजी के शतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी। शिवजी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न  तोडना ।

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भाग -2


11. हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥3

भगवान शिव  ने माता पार्वती  से  कहा

भावार्थ:-श्री हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। श्री रामचन्द्रजी के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते॥3

                               ------भगवान  शिव ने  पार्वती जी से  कहा ।----------------------

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12. * तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥159(ख)॥

भावार्थ:-तुलसीदासजी कहते हैं- जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है॥159 (ख)॥

     ---तुलसीदास जी ने  भानुप्रताप राजा के लिए  कहा ।-------

13.

काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
तिय बिसेषि पुनिचेरि कहि भरतमातु मुसुकानि

=====माता कैकयी ने मंथरा से  कहा । 

भावार्थ

कानों, लंगड़ों और कुबड़ों को कुटिल और कुचाली जानना चाहिए। उनमें भी स्त्री और खासकर दासी! इतना कहकर भरतजी की माता कैकेयी मुस्कुरा दीं॥14

14.  नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥3

भावार्थ:-असत्य के समान पापों का समूह भी नहीं है। क्या करोड़ों घुँघचियाँ मिलकर भी कहीं पहाड़ के समान हो सकती हैं। 'सत्य' ही समस्त उत्तम सुकृतों (पुण्यों) की जड़ है। यह बात वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है और मनुजी ने भी यही कहा है॥3

उत्तर-राजा दशरथ ने कैकयी से कहा यह कहते हुए कि वे वचन के पक्के  हैं ।

15. * सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा॥4

भावार्थ:-हे माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी है, जो पिता-माता के वचनों का अनुरागी (पालन करने वाला) है। (आज्ञा पालन द्वारा) माता-पिता को संतुष्ट करने वाला पुत्र, हे जननी! सारे संसार में दुर्लभ है॥4

उत्तर-र-श्री राम ने माता कैकई से कहा

16. * धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥
चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥1

भावार्थ:-(उन्होंने फिर कहा-) इस पृथ्वीतल पर उसका जन्म धन्य है, जिसके चरित्र सुनकर पिता को परम आनंद हो, जिसको माता-पिता प्राणों के समान प्रिय हैं, चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) उसके करतलगत (मुट्ठी में) रहते हैं॥1

उत्तर –श्री राम ने दशरथ से कहा

17. * मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ।
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ॥70

भावार्थ:-जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो जगत में जन्म व्यर्थ ही है॥70

उत्तर-श्री राम ने लक्ष्मण से कहा जब वह वन जाने की ज़िद्द कर रहे थे ।

18.- * अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥2

भावार्थ:-जहाँ श्री रामजी का निवास हो वहीं अयोध्या है। जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है। यदि निश्चय ही सीता-राम वन को जाते हैं, तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है॥2

उत्तर- माता सुमित्रा ने लक्ष्मण से कहा ।

19-* सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईसु देइ फलु हृदयँ बिचारी॥
करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई॥4

भावार्थ:-शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर हृदय में विचारकर फल देता है, जो कर्म करता है, वही फल पाता है। ऐसी वेद की नीति है, यह सब कोई कहते हैं॥4

उत्तर-राजा दशरथ ने राम को वन के लिए चलते हुए कहा ।

20-काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥2

भावार्थ:-तब लक्ष्मणजी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले- हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं॥2

उत्तर- लक्ष्मण जी केवट से बोले ।

21- * धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना॥
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा। तजें तिहूँ पुर अपजसु छावा॥3

भावार्थ:-वेद, शास्त्र और पुराणों में कहा गया है कि सत्य के समान दूसरा धर्म नहीं है। मैंने उस धर्म को सहज ही पा लिया है। इस (सत्य रूपी धर्म) का त्याग करने से तीनों लोकों में अपयश छा जाएगा॥3

उत्तर- श्री राम ने सुमन्त्र जी से कहा जब वह उनसे अयोध्या वापिस चलने के लिए कह रहे थे ।

22. * सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी। माधव सरिस मीतु हितकारी॥
चारि पदारथ भरा भँडारू। पुन्य प्रदेस देस अति चारू॥2

भावार्थ:-उस राजा का सत्य मंत्री है, श्रद्धा प्यारी स्त्री है और श्री वेणी माधवजी सरीखे हितकारी मित्र हैं। चार पदार्थों (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) से भंडार भरा है और वह पुण्यमय प्रांत ही उस राजा का सुंदर देश है॥2

उत्तर –यहां श्री राम प्रयागराज को तीर्थों का राजा बता रहे हैं ।

23. अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा।।

वन को प्रस्थान करते समय माता कौशल्या ने  सीताजी को बार-बार हृदय से लगाया और धीरज धरकर शिक्षा दी और आशीर्वाद दिया कि जब तक गंगाजी और यमुनाजी में जल की धारा बहे, तब तक तुम्हारा सुहाग अचल रहे॥4

-----माता कौशल्या ने  सीता जी को  आशीर्वाद देते हुए  कहा ।

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