117 पेंडुलम [ एक लघु कथा ]
ओह i हम भी तो ऐसे ही हैं i अभी तो खाना खाने को मन था अभी चाट खाने को मन हो आया i थोड़ी देर पहले बाज़ार जाने को मन था ,अब नहीं है i हमारा दिल और दिमाग़, हमारे वचन और हमारे इरादे, "मैंने पेंडुलम की ओर देखा" अरे हाँ, ऐसे ही तो हैं i कभी टिक कर नहीं रहते i पेंडुलम की तरह इधर से इधर हिलोरें लेते रहते हैं i कभी दाईं ओर, कभी बाईं ओर i मित्र, सम्बन्धी यहाँ तक कि अपने घर व समाज के सभी वर्ग ऐसे ही दिखते हैं i
इस दुनिया में रात ही रात में विशवास बदल जाते हैं, और बात ही बात में अलफ़ाज़ बदल जाते हैं ii गिरगिट तो भगवान की रचना है , ये घड़ी की टिक-टिक के साथ सब इंसान भी बदल जाते है ii
बच्चों को देखो जो अपने माता-पिता से इतना प्यार करते थे , वे बुढ़ापे में उन्हें सड़क पर छोड़ देते हैं i उनकी जमीन,ज़ायदाद ले कर उन्हें नि:सहाय कर देते हैं i माता कैकई जो श्री राम से भरत से भी अधिक स्नेह करती थी ,रातों-रात बदल गई i उसने कैसे राजा दशरथ से उनके लिए वनवास मांग लिया i प्रजा को देखो जो उनके वनवास जाने पर दुखी थी ,उसी ने वापिस आने पर सिया पर ऊँगली उठा कर उन्हें चैन से न रहने दिया i सदियों से यही हो रहा है i वही राजा जो प्रजा के दुःख दूर करने का वायदा करता है ,समय बीत जाने पर भूल जाता है और वह प्रजा जो नेताओं को भ्रष्टाचारी ,चरित्रहीन, व दुराचारी कह कर कोसती है अगला चुनाव आते ही उनको जिता देती है i और वही पार्टियाँ जो विपक्ष को भ्रष्टाचारी कहती है उन्हें अपनी पार्टी में मिला लेती है i वोटर और राजा दोनों ही भूल जाते हैं कि छत कहाँ चाहिए, इमारत कौन सी बननी चाहिए, सहायता-राशि कहां देनी चाहिए तथा वोट के सिक्के किस गोलक में डालने चाहिएं ताकि उनका जीवन सुरक्षित रह सके i हाँ, पेंडुलम ही तो हैं हम सब i सब आस-पास 1-2-3 नम्बर से रहते हैं और पेंडुलम घुमा रहा है और सब घूम रहे हैं i थम गया तो थम जाएंगे, चल रहा तो चलते रहेंगे i वाह रे पेंडुलम ! कमाल है ! कभी ध्यान ही नहीं गया कि दीवार पर तुम नहीं ,समाज का आईना सज रहा है i By: Nirupma Garg
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