[88 ] सब्र क़ा इम्तिहाँ [ कविता ]
ये ज़िन्दगी भागती रेल है मानव !
डिब्बा एक है तेरे सफर का
डिब्बा एक है तेरे सफर का
भारी भरकम भीड़ है इसकी
लेती इम्तिहाँ तेरे सबर का ii
धकेलता है कोई यहाँ
कोई देता है , "पनाह"
चहूँ ओर के शोर में , राही
घबरा कर भरना
कभी न आह i
चढ़ना, उतरना , गिरना , उठना
चलती रेल में होता है
थम जाती जब एक जगह
तो घन्टों इन्तजार होता है i
प्रतीक्षा कर ले तनिक यहाँ तू
खुद ज़गह मिल जाएगी
सफ़र भी कट जाएगा तेरा
और
मंज़िल भी मिल जाएगी ii
प्रतीक्षा कर ले तनिक यहाँ तू
खुद ज़गह मिल जाएगी
सफ़र भी कट जाएगा तेरा
और
मंज़िल भी मिल जाएगी ii
यही सब्र इंसान को रोज़
मंजिल तक पहुंचाता है
थक कर वापिस लौट जाए कोई
आज तलक न देखा है i
भीड़ चाहे कितनी बड़ी हो
खुद इंसान जगह बनाता है
छुक-छुक करती रेल का फिर
आनन्द से लुत्फ़ उठाता है i
रेल के साथ वृक्ष भागते
भागते नदियाँ ,नारे
ज़िन्दगी भी भाग रही है
मत अधीर हो प्यारे i
अधीरता में चलती प्यारे
रेल-जीवन की
रेल-जीवन की
दुर्घटना-ग्रस्त हो जाती है
सिग्नल मिल जाए यदि सब्र का
तबाही से बच जाती है i
ज़िन्दगी की रेल में मानव !
डिब्बा एक तेरे सफर का
धीर बन, अधीर बन
निर्णय तेरा अपना है ,
याद रखना बिन सब्र के
पूरा न होता सपना है i
=By: Nirupma Garg
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