[ 86 ] घोंसला [ कविता ]
वो देखो टूट रहा है
घोंसला चिड़िया का बार-बार i
वही होंसला, वही हिम्मत
नया बना रही ,हर बार ii
एकटक देख रही थी मैं
रो पड़ेगी-------------शायद ,
सोच रही थी मैं i
आत्म-हत्या न कर ले वो -----------------
मन में , विचार रही थी मैं ii
मैं मन से कितनी हार रही थी
पर जीत रही थी मन से वो i
मैं मरने की सोच रही थी
पर जीने की सोच रही थी वो ii
उड़ान भरी एकाएक
चहचहाते, आकाश में झट उसने i
बेहाल पड़े धरती पर मुझ से
अहम सवाल दागा उसने ii
जीने के लिए मर रही हो ?
या
मर कर जीना चाहती हो ?
मेरी मृतक सोच को जैसे
ज़ोर से झटका दिया उसने ii
मरना-जीना तो अलग-अलग हैं
यह कैसा प्रश्न किया तुमने ?
बिन पूछे ही सब कुछ शायद
समझा दिया था मुझ को उसने ii
पंछी जिनका नहीं एक ठिकाना
हैं घर सवांरते बार-बार
मैं मानव हो कर
अनमोल जन्म को
रोंद रही थी बार-बार ii
नहीं, नहीं यह ठीक नहीं
ये जीवन सुनहरी मौका है
मरने से अच्छा इसे सुधारूं
किस ने मुझ को रोका है ?
सोच लिया आज दिन से मैंने
कुछ काम करूं , कुछ काम करूं मैं
जग में रह कर क्यूँ न
अपना नाम करूं मैं ?
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
क्यूँ इसमें कुछ व्यर्थ करूं मैं
क्यूँ इसमें कुछ व्यर्थ करूं मैं ?
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By: Nirupma Garg
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