[ 73 ] गम की धूप [ कविता ]
गम की हो धूप गर
धरा जीवन की हो जल रही
मत बेबस खुद को समझ
मत बेबस खुद को समझ
शीतल कर ले अपने मन को
अश्रुधारा है तेरे पास रही ii
सींच ले जी भर के धरा को
उसी अश्रू की धारा से
सूख जाए वह भी गर
ले सहारा फिर अपने दिल मे
जल रहे अंगारे से
न बन सके भवन गर खुशियों का
बना ले आशियाना चट्टानों से
ठोकर लगे गर हर मार्ग मेंं
तो ले सहारा पत्थरों का
मज़बूत कर ले इतना अपने को
आंधी चले, तूफ़ान आ जाए
तुझ को कोई न हिला सके
थपेड़ें धूप की लाख पड़ें
तुझ को कोई न जला सके
बन जा तू पर्यटन- स्थल
कैद हो जा कैमरे में
दूंढ़ ले खुशियाँ फिर से तू
औरों की मुस्कानों में
बदल जाएगी तेरी दुनिया
दूर होंगे गम सारे
जैसे छंटते काले बादल
घनघोर वर्षा हो जाने से
वही गम की धूप, जो
जला रही थी तेरा जीवन
नदियों का पानी सोख-सोख कर
फिर पानी बरसाएगी
मत बेबस खुद को समझ
सूख रहे तेरे जीवन में
फिर हरियाली छाएगी ii
गम खा , पर कम खा
न इससे समझौता कर
बहने दे यूं ही जीवन में
नाव की सम्भाल कर
नाव की सम्भाल कर
By: Nirupma Garg
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