{69 } सूनी इमारत-एक लघु कथा


छोटे से शहर में एक गरीब परिवार रहता था i घर का मुखिया स्कूल में अध्यापक था i चार बच्चों का परिवार पालता और  मन ही मन सोचता, जाने कब होगा अपना आशिआना, कब चहकेंगे आंगन में उसके प्यारे से बच्चे i सत्रह बरस बीत गए इसी स्कूल में नौकरी करते , अभी तक कुछ नहीं बन पाया i बन जाएगा i ईश्वर इतना भी क्रूर नहीं i  -कुम्हार जब घड़ा बनाता है, वह बाहर से तेज़ थपथपाता है और अंदर प्यार से सहलाता है i मुझे विशवास है कि मेरा कुम्हार मुझे कभी टूटने नहीं देगा i एकाएक ईश्वर के आगे उसका सीस झुक जाता i
                              "हे  ईश्वर'' ! तेरे  फैंसले हमारी ख्वाहिशों से बेहतर होते हैं ,
                            यूँ ही नहीं , ठोकर खा कर लोग,दर तेरे  सजदा करते हैं i
दीन दशा, आँखों में करुणा, मन में ईश्वर के प्रति आस्था तथा मन में उठ रही लहरों की दी हुई लोरियों ने कब नींद दिला दी , पता ही नहीं   चला i सुबह फिर स्कूल, वही ज़िन्दगी i जैसी भी थी अच्छी थी i ईश्वर की दया से बच्चे भी छात्र-वृत्ति से पढ़  कर बड़े हो गए i बचपन से गरीबी देखी i इसलिए विदेश से पैसा कमाने की ठान ली i खूब धन कमाया i पिता-माता के लिए सुंदर सा आशिअना बनाया i मन तो कहता था  कि  मैं न कहता था कि ईश्वर के घर देर है , अंधेर नहीं i घर में खुशियाँ छा गई i बेटे और बेटी की धूम-धाम से शादी की i बेटी ससुराल चली गई और बेटा-बहू विदेश चले गए i घर में सूनापन पसर गया i घर के पास नीम का दरख्त था वह भी घर बनाने के समय कटवा दिया था i रोज़ के साथी पंछी भी उड़ कर कहीं और रहने लगे थे i
                                         किस काम की यह इमारत, किस काम का यह पैसा,
                                                 जीवन तो नहीं रहा, पहले के जैसा i
                                           इमारत तू इमारत है, वौज़ूद  तेरा है  मिट्टी जैसा
                                          सूनी पड़ी हैं तेरी दीवारें, बस  मुख ज़रा है बदला-बदला ii
आज न जाने कितनी कोठियाँ, कितने बंगले , कितने घोंसले  ख़ाली पड़े हैं, देश में नौकरियों का अकाल पड़ रहा है , बच्चे विदेश जा रहे हैं, इमारतें सूनी पड़ी हैं i  लोग हंसते हैं, खुश होते हैं, सीने पर पहले से भी ज़्यादा घाव लगते हैं  i काश ! मेरा देश ही बेटे को कोई अच्छी नौकरी दे पाता i नहीं,यह सब  सोचने से क्या होगा  i
                                            वही करता है, वही करवाता है
                                              क्यूँ बंदे तू झल्लाता  है,
                                          इक सांस भी नहीं है तेरे बस की
                                              वही सुलाता वही जगाता है i

                            फिर से  सोचते-सोचते कब आँख लग गई, पता ही नहीं चला i  

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