{69 } सूनी इमारत-एक लघु कथा
"हे ईश्वर'' ! तेरे फैंसले हमारी ख्वाहिशों से बेहतर होते हैं ,
यूँ ही नहीं , ठोकर खा कर लोग,दर तेरे सजदा करते हैं i
दीन दशा, आँखों में करुणा, मन में ईश्वर के प्रति आस्था तथा मन में उठ रही लहरों की दी हुई लोरियों ने कब नींद दिला दी , पता ही नहीं चला i सुबह फिर स्कूल, वही ज़िन्दगी i जैसी भी थी अच्छी थी i ईश्वर की दया से बच्चे भी छात्र-वृत्ति से पढ़ कर बड़े हो गए i बचपन से गरीबी देखी i इसलिए विदेश से पैसा कमाने की ठान ली i खूब धन कमाया i पिता-माता के लिए सुंदर सा आशिअना बनाया i मन तो कहता था कि मैं न कहता था कि ईश्वर के घर देर है , अंधेर नहीं i घर में खुशियाँ छा गई i बेटे और बेटी की धूम-धाम से शादी की i बेटी ससुराल चली गई और बेटा-बहू विदेश चले गए i घर में सूनापन पसर गया i घर के पास नीम का दरख्त था वह भी घर बनाने के समय कटवा दिया था i रोज़ के साथी पंछी भी उड़ कर कहीं और रहने लगे थे i
किस काम की यह इमारत, किस काम का यह पैसा,
जीवन तो नहीं रहा, पहले के जैसा i
इमारत तू इमारत है, वौज़ूद तेरा है मिट्टी जैसा
सूनी पड़ी हैं तेरी दीवारें, बस मुख ज़रा है बदला-बदला ii
आज न जाने कितनी कोठियाँ, कितने बंगले , कितने घोंसले ख़ाली पड़े हैं, देश में नौकरियों का अकाल पड़ रहा है , बच्चे विदेश जा रहे हैं, इमारतें सूनी पड़ी हैं i लोग हंसते हैं, खुश होते हैं, सीने पर पहले से भी ज़्यादा घाव लगते हैं i काश ! मेरा देश ही बेटे को कोई अच्छी नौकरी दे पाता i नहीं,यह सब सोचने से क्या होगा i
वही करता है, वही करवाता है
क्यूँ बंदे तू झल्लाता है,
इक सांस भी नहीं है तेरे बस की
वही सुलाता वही जगाता है i
फिर से सोचते-सोचते कब आँख लग गई, पता ही नहीं चला i
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