{55} माँ की यादें-[ कविता ]


चिड़िया  तेरे आंगन की ,  फर-फर उड़ती  थी मैं  माँ
तेरे स्नेह का  तेरे हाथ से  प्यार से चुग्गा    खाती थी  माँ
  न समझ पाई उस  प्रेम  की, ऐसी क्या  वजह  थी  माँ
आज  ख़ुद खड़ी हूँ जब  अपने आंगन में
 ले न पा रही हूँ  वो  जगह मैं माँ

माँ तुम भू, भूमि, वसुंधरा
तपिश सूर्य की सहती थी 
फिर भी आँचल में अपने
सबको छाया देती थी  ii

ऊँचे-ऊँचे पर्वत, टीले
लम्बे कुनबे, बड़े कबीले
कैसे बोझ को ढोती थी 
उफ़ न करती तुम ज़रा भी
सब अपने सर ले लेती थी  ii

माँ तुम अविरल झील की धारा 
तुम ही झील  किनारा थी 
 वेग से लहरें उठने पर भी   
खुशियाँ सब को देती थी  
तुम भू, भूमि, वसुंधरा
शीतल जल से 
शीतलता सब को देती  थी  ii

आ जाएं कितने ही तूफाँ
सामना तुम कर लेती थी   
वृक्ष टूट कर गिरते तुम पर 
आसानी से सह लेती   थी   
सचमुच माँ तुम कोई शक्ति थी  
कैसे सब कर  लेती थी  ? 

घर में ही हो जब  ऐसी मूरत
क्या आवश्यकता, कहीं जाने की
चारों धाम इन्ही चरणों में
 आती है   याद  गणपत की  ii 
सही,सटीक था उनका निर्णय 
 इर्द-गिर्द चक्कर  लगाने का 
घूम आये विश्व में कार्तिक 
  न मिला  अवसर   विजय पाने का ii

मॉ  सा रिश्ता कोई नहीं
स्वयं कृष्ण ने यह  माना है
मात यशोदा की तो बात अलग थी
 माँ गांधारी का श्राप  तलक 
श्री  कृष्ण ने धारा है ii

माता का  आदर  करने से
यश,बल,बुद्धि बढ़ते हैं
बिन प्रयास ही चार-धाम के
पुण्य उसको मिलते हैं
पुण्य उसको मिलते हैं ii

Happy Mother"s day !

                                                               By: Nirupma Garg
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