39 स्वामी दयानन्द सरस्वती -फरवरी १२,१८२४

बागवां बन के दयानन्द जो न आ जाता 
गुलशने हिन्द कड़ी धूप से मुरझा जाता 
खून से स्वामी ने जो इसे सींचा न होता 
धर्म का यह वृक्ष उसी वक्त कुम्हला जाता i 

सन् १८४६
आज़ादी- बिगुल बजा   था  नया-नया
तांत्या टोपे,नाना साहेब,
थे  संग में   हाजी मुल्ला खां
  "स्वराज" का  नारा  
  "सन्यासी योद्धा"जो न देता
टूट कर  यह  एकता -  सूत्र
 उसी वक्त  बिखर जाता i 

सती-प्रथा और बाल-विवाह कितना उन दिनों प्रचलित था
जलती अग्नि में ज़िंदा जलना विधवा का तो   धर्म ही था  
बाल-कन्याओं से शिक्षा का स्तर भी, कोसों ज़्यादा दूर ही  था 
कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़, जो   समाज-सुधारक न उठाता 
  नारी -उत्थान का सपना हमारा ,उसी वक्त चूर-चूर  हो  जाता i
  

स्वामी हमारे बीच नहीं,आदर्श तो उनके साथ हैं
धन्य हैं   हम भारतीय  जो मूल्य हमारे साथ हैं
   आज़ जो है गौरव हमको ,वह गौरव-अभिमान कहां  होता
बागवां बन के दयानन्द जो न आ जाता
गुलशने हिन्द कड़ी धूप से मुरझा जाता i
=


  
  स्वामी दयानन्द को शत-शत प्रणाम i 

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