{9} रामचरितमानस से सीखें ज्ञान की बातें –
१-सुनु जननी सोई सुतु बड़भागी i जो पितुमातु वचन अनुरागी ii
तनय मातु पितु तोषनिहारा i दुर्लभ जननि सकल संसारा ii
अर्थात्- हे माता ! सुनो,वही पुत्र बड़भागी है,जो पिता-माता के वचनों का पालन करते हैं i ऐसा आज्ञा-पालक पुत्र इस संसार में दुर्लभ है i
२- गुरु पितु मातु स्वामी सिख पालें i चलेहूँ कुमग पग परहिं न खालें ii अर्थात्-गुरु,पिता,माता और स्वामी की शिक्षा का पालन करने से कुमार्ग पर भी चलने पर भी पैर गड्ढे में नहीं पड़ता अर्थात् पतन नहीं होता i
३- ज्ञान मान जहँ एकउ नाहीं i देख ब्रह्म समान सब माहीं ii
कहहिं तात सो परम बिरागी i तृन सम सिद्धि तीनि गुण त्यागी ii
अर्थात्-ज्ञान वह है जिसमें मान{घमंड} आदि का एक भी दोष नहीं होता i हे तात ! उसी को परम वैराग्यवान् कहना चाहिए जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चु का हो i
४ -सत्यमूल सब सुकृत सुहाय i वेदपुराण
विदित मनु गाए ii
५- सुभ अरु असुभ करम अनुहारी i ईस देई फलु हृदय विचारी ii
करई जो करम पाव फल सोई i निगम नीति असि कह सब
कोई ii
अर्थात्---शुभ-अशुभ
कर्मों के अनुसार ईश्वर हृदय में विचार करके फल देता है
i जो जैसा कर्म करता है ,वह वैसा ही फल पाता है i ऐसी वेद की नीति है i यह सब कोई
कहते हैं i
६- मातु पिता गुरु स्वामी सिख धरि करहीं सुभाय
लहेऊ लाभु तिन्ह जन्म कर
नतरु जन्म जग जाये i
अर्थात्—जो लोग माता-पिता,गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही
सिर चढ़ा कर उसका पालन करते हैं,उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है,नही तो जगत्
में जन्म व्यर्थ है i
८- कबहुं दिवस महं निबिड़ कबहुँक प्रकट पतंग i
९- देत लेत मन संक न धरई i बल अनुमान सदा हित करई ii
८- कबहुं दिवस महं निबिड़ कबहुँक प्रकट पतंग i
बिन्सइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ
कुसंग सुसंग ii
अर्थात्-जिस प्रकार बादलों के कारण दिन में घोर अन्धकार छा जाता है और सूर्य प्रकट
होने पर प्रकाश हो जाता है उसी प्रकार कुसंगति में रहने से ज्ञान नष्ट हो जाता है
और सुसंगति से ज्ञान उत्पन्न होता है i
९- देत लेत मन संक न धरई i बल अनुमान सदा हित करई ii
विपति काल कर सतगुन नेहा i श्रुति कह संत मित्र
गुन एहा ii
अर्थात्—वेद कहते हैं कि जो
मित्र देने-लेने में शंका नही रखते,अपने बल के अनुसार सदा हित करते हैं तथा
विपत्ति के समय चौगुना स्नेह करते हैं वे मित्र सर्वश्रेष्ठ कहलाते हैं i
१०-आगे कह मृदु वचन बनाई i पाछें अनहित मन कुटिलाई ii
११- सचिव,वैद गुरु तीनि जो प्रिय बोलहिं भय आस i
१०-आगे कह मृदु वचन बनाई i पाछें अनहित मन कुटिलाई ii
जा कर चित अहि सम भाई i अस
कुमित्र परिहरेहीं भलाई ii
अर्थात्—जो सामने तो कोमल वचन कहता है,पीछे बुराई करता है और मन
में कुटिलता रखता है,जिसका मन साँप की तरह टेड़ा होता है,ऐसे कुमित्र को त्यागने
में ही भलाई है i
११- सचिव,वैद गुरु तीनि जो प्रिय बोलहिं भय आस i
राज
धर्म तन तीनि कर होहिं बेगहिं नास ii
अर्थात्- मंत्री,वैद्य और गुरु जब डर के मारे खुशामद में
जी-हजूरी करने लगते हैं तो राज्य,धर्म और शरीर –इन तीनों का नाश शीघ्र हो जाता है i
१२- सुनहु असंतन्ह केर सुभाऊ i भूलेहूँ संगति करिअ न काऊ ii
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई i जिमि कपिलहि घालइ हरहाई ii
अर्थात्-दुष्टों की संगति सदा दुःख देने वाली होती है i जैसे हरहाई जाति की गाय कपिला गाय को अपने संग से नष्ट कर डालती है i
१३- जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ i
मन क्रम वचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुं ii
अर्थात्- कलियुग में जिनके आचरण दूसरों का अहित करने वाले हैं,उन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं i अर्थात् सब लोग उन्हें ही पूजते हैं i जो मन,वचन और कर्म से लबार अर्थात् झूठ बोलने वाले हैं, कलियुग में सभी ऐसे लोगों को अच्छा वक्ता अर्थात् अच्छा बोलने वाला मानते हैं i
१४- मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं i आपु गए अरु घालहिं आनहिं ii
१२- सुनहु असंतन्ह केर सुभाऊ i भूलेहूँ संगति करिअ न काऊ ii
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई i जिमि कपिलहि घालइ हरहाई ii
अर्थात्-दुष्टों की संगति सदा दुःख देने वाली होती है i जैसे हरहाई जाति की गाय कपिला गाय को अपने संग से नष्ट कर डालती है i
१३- जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ i
मन क्रम वचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुं ii
अर्थात्- कलियुग में जिनके आचरण दूसरों का अहित करने वाले हैं,उन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं i अर्थात् सब लोग उन्हें ही पूजते हैं i जो मन,वचन और कर्म से लबार अर्थात् झूठ बोलने वाले हैं, कलियुग में सभी ऐसे लोगों को अच्छा वक्ता अर्थात् अच्छा बोलने वाला मानते हैं i
१४- मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं i आपु गए अरु घालहिं आनहिं ii
करहिं मोह बस द्रोह परावा i संत संग हरी कथा न भाव ii
अर्थात्-जो माता,पिता,गुरु और ब्राह्मण किसी को नहीं मानते वे आप तो नष्ट हुए ही रहते हैं,दूसरों को भी नष्ट करते हैं i मोहवश दूसरों से द्रोह करते हैं i उन्हें न संतों का संग अच्छा लगता है,न भगवान् की कथा सुहाती है i
१५ - न्रर पीड़ित रोग न भोग कहीं i अभिमान विरोध आकार नहीं ii
लघु जीवन संबतु पंच दसा i कल्पान्त न नास गुमानु असा ii
अर्थात्-मनुष्य रोगों से पीड़ित रहता है,सुख कहीं नहीं है i फिर भी बिना कारण अभिमान और विरोध करते हैं i
दस-पांच वर्ष का थोड़ा सा जीवन होता है,परन्तु घमंड ऐसा है मानो प्रलय होने पर भी वे जीवित रहेंगे और कभी उनका नाश नहीं होगा i
उत्तरकाण्ड में कलियुग की परिभाषा-
१-मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा i पंडित सोइ जो गाल बजावा ii
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई i ता कहुँ सन्त कहइ सब कोई ii
अर्थात्- कपटी लोग अपने हिसाब से क़ानून बनाते हैं, अपने हिसाब से मार्ग बनाते हैं अर्थात् जिसको जो अच्छा लग जाए, वही मार्ग है i जो डींग हाँकता है, उसी को लोग पंडित अर्थात् बुद्धिमान कहने लग जाते हैं i जो आडम्बर रचता है और घमंड में चूर है ,उसी को सब लोग संत कहते हैं ii
२-सोइ सयान जो परधन हारी i जो कर दंभ सो बड़ आचारी ii
जो कह झूँठ मसखरी जाना i कलिजुग सोइ ग्न्वन्त बखाना ii
अर्थात्-जो दूसरे का धन हरण कर ले,वही बुद्धिमान माना जाता है i जो घमंड करता है,वही आचारी माना जाता है i जो झूठ बोलता है और हंसी-दिल्लगी करता है,वही गुणवान माना जाता है i
३-निराचार जो श्रुति पथ त्यागी i कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ii
जाकें नख अरु जटा बिसाला i सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ii
अर्थात्- जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ग्यानी और वही वैराग्यवान माना जाता है i जिसके बड़े-बड़े नख और लम्बी-लम्बी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी माना जाता है i
४- छंद==बहु दाम संवारहिं धाम जती i बिषया हरि लीन्हि न रहिबिरती ii
तापसी धन्वंत दरिद्र गृही i कली कौतुक तात न जात कही ii
अर्थात्- सन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं i उनमें वैराग्य नाम की कोई चीज़ नहीं रहती i वे संस्सारिक विषयों के अधीन हो जाते हैं i तपस्वी धनवान हो जाते हैं और गृहस्थ दरिद्र i कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती i
५-कबि बृंद उदार दुनी न सुनी i गुण दूषक बरात न कोपि गुनी ii
अर्थात्- कवियों के झुण्ड तो हो जाते हैं ,पर उदार सुनाई नहीं पड़ता i सब लोग एक-दूसरे में दोष ढूँढने में लगे रहते हैं,पर गुणी कोई भी नहीं होता i
६ -दोहा - कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग i
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ii
अर्थात्- कलियुग में एक सबसे बड़ा गुण यह है कि जो गति सतयुग,त्रेता,और द्वापर में पूजा,यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान के नाम से पा जाते हैं ii
जय श्री राम !
१५ - न्रर पीड़ित रोग न भोग कहीं i अभिमान विरोध आकार नहीं ii
लघु जीवन संबतु पंच दसा i कल्पान्त न नास गुमानु असा ii
अर्थात्-मनुष्य रोगों से पीड़ित रहता है,सुख कहीं नहीं है i फिर भी बिना कारण अभिमान और विरोध करते हैं i
दस-पांच वर्ष का थोड़ा सा जीवन होता है,परन्तु घमंड ऐसा है मानो प्रलय होने पर भी वे जीवित रहेंगे और कभी उनका नाश नहीं होगा i
उत्तरकाण्ड में कलियुग की परिभाषा-
१-मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा i पंडित सोइ जो गाल बजावा ii
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई i ता कहुँ सन्त कहइ सब कोई ii
अर्थात्- कपटी लोग अपने हिसाब से क़ानून बनाते हैं, अपने हिसाब से मार्ग बनाते हैं अर्थात् जिसको जो अच्छा लग जाए, वही मार्ग है i जो डींग हाँकता है, उसी को लोग पंडित अर्थात् बुद्धिमान कहने लग जाते हैं i जो आडम्बर रचता है और घमंड में चूर है ,उसी को सब लोग संत कहते हैं ii
२-सोइ सयान जो परधन हारी i जो कर दंभ सो बड़ आचारी ii
जो कह झूँठ मसखरी जाना i कलिजुग सोइ ग्न्वन्त बखाना ii
अर्थात्-जो दूसरे का धन हरण कर ले,वही बुद्धिमान माना जाता है i जो घमंड करता है,वही आचारी माना जाता है i जो झूठ बोलता है और हंसी-दिल्लगी करता है,वही गुणवान माना जाता है i
३-निराचार जो श्रुति पथ त्यागी i कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ii
जाकें नख अरु जटा बिसाला i सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ii
अर्थात्- जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ग्यानी और वही वैराग्यवान माना जाता है i जिसके बड़े-बड़े नख और लम्बी-लम्बी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी माना जाता है i
४- छंद==बहु दाम संवारहिं धाम जती i बिषया हरि लीन्हि न रहिबिरती ii
तापसी धन्वंत दरिद्र गृही i कली कौतुक तात न जात कही ii
अर्थात्- सन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं i उनमें वैराग्य नाम की कोई चीज़ नहीं रहती i वे संस्सारिक विषयों के अधीन हो जाते हैं i तपस्वी धनवान हो जाते हैं और गृहस्थ दरिद्र i कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती i
५-कबि बृंद उदार दुनी न सुनी i गुण दूषक बरात न कोपि गुनी ii
अर्थात्- कवियों के झुण्ड तो हो जाते हैं ,पर उदार सुनाई नहीं पड़ता i सब लोग एक-दूसरे में दोष ढूँढने में लगे रहते हैं,पर गुणी कोई भी नहीं होता i
६ -दोहा - कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग i
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ii
अर्थात्- कलियुग में एक सबसे बड़ा गुण यह है कि जो गति सतयुग,त्रेता,और द्वापर में पूजा,यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान के नाम से पा जाते हैं ii
जय श्री राम !
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