200 क्या माता,राधाजी, शिव भोले और कृष्ण-अलग-अलग हैं ?
गीता के 9वें अध्याय में भगवान श्री कृष्न ने कहा है-
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।9.23।।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।9.23।।
हे अर्जुन । सभी देवता-गण व भूत-प्रेत मेरे ही अंश हैं । अत: मनुष्य चाहे किसी भी देवता की पूजा करे, वे सब टेढी रीति से मुझे ही पूजते हैं ।
समस्त संसार इसलिए भ्रमित रहता है क्योंकि जब हम देवी पुराण पढते हैं तो उसमें देवी भगवती को सर्वेसर्वा पढते हैं, यदि हम शिव पुराण पढते हैं तो शिव की पूजा को सर्वोपरि मानने लग जाते हैं, जब भागवत पुराण पढते हैं तो हमें लगता है कि इन्हीं की उपासना सर्वश्रेष्ठ है । इसके पीछे एक ही रहस्य है कि ये सभी एक ही मूल तत्व परमात्मा की शाखाएं हैं और सभी शाख़ाओं में परमपिता की शक्तियां प्रवाहित हो रही हैं । यह भेद केवल हम वेदों और पुराणों का अध्ययन करके ही जान सकते हैं ।
अतीत काल की बात है,जब श्री कृष्न अकेले ही अविनाशी परम ब्र्ह्म थे तो उनके मन में सृष्टि रचना की इच्छा जागृत हुई । सृष्टि रचना के लिए उन्होंने इंसान की बनावट की कल्पना की । ग्यान,बुद्धि,विवेक युक्त इंसान की कल्पना करके सबसे पहले उनका ध्यान मनुष्य के मस्तिष्क की ओर गया । वे अपनी इच्छा से दो रूपों में प्रकट हुए । उनका वाम अंग स्त्री रूप में आविर्भूत हुआ और दाहिना भाग पुरुष रूप में । उनका स्त्री रूप मूल प्रकृति देवी का था जिनकी जीह्वा के अग्रभाग से देवी सरस्वती प्रकट हुई जिसके एक हाथ में वीणा और दूसरे हाथ में पुस्तक थी । वह सम्पूर्ण शास्त्रों की अधिष्ठात्री देवी थी। श्री कृष्ण ने उन्हें आग्या दी - हे देवी ! तुम संसार में ग्यान बांटो । तत्पश्चात ईश्वर ने सोचा कि इंसान के लिए केवल ग्यान ही पर्याप्त नहीं है । जीवन जीने के लिए धन व सुख समृद्धि की भी आवश्यकता है । अत: कुछ समय पश्चात उन्होंने मूल प्र्कृति देवी को दो रूपो में प्रकट किया । आधे वाम अंग से लक्ष्मी जी का प्रादुर्भाव हुआ । यह देवी सभी को धन, वैभव व ऐश्वर्य प्रदान करने वाली हुई ।
फिर भगवान ने सोचा कि "अर्थ अनर्थ है यदि आपस में प्रेम न हो " अत: उन्होने अपने दाहिने अंग से अपने भीतर विद्यमान प्रेम रस को स्त्री का रूप दे कर राधिका जी को प्रकट किया । उसी समय श्री कृष्न भी दो रूप हो गए । दाहिने अंग से वे द्वि-भुजीय कृष्ण,जो गोलोक में श्री राधा जी के साथ निवास करते हैं और वाम अंग से चतुर्भुज विष्णु के रूप में प्रकट हुए,जो माता लक्ष्मी जी के साथ वैकुण्ठ में निवास करते हैं। तब श्री कृष्ण ने देवी सरस्वती से कहा-कि हे देवी । तुम विष्णु जी की प्रिया बन जाओ । और देवी लक्ष्मी को विष्णु जी की सेवा में उपस्थित होने को कहा। इस तरह ये दोनों देवियां राधा जी का अंश मानी जाती हैं ।
श्री कृष्ण ने जान लिया था कि समस्त संसार सत्व,रज और तम - इन तीन गुणों के अधीन होगा । भयंकर राक्षस सज्जनों व ऋषि मुनियों पर अत्याचार करेंगे । इसलिए उन्होंने कुछ समय बाद अपनी शक्तियों से देवी दुर्गा को प्रकट किया । ये देवी सनातनी एवं भगवान विष्णु की माया है । इन्हें नारायणी भी कहा जाता है । ये श्री कृष्ण की बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी कहलाती हैं । सम्पूर्ण देवियां इन्हीं से प्रकट होती हैं । इन्हें देवियों की बीज स्वरूपा, मूल प्रकृति,एवं ईश्वरी कहते हैं । ये तेज स्वरूपा और त्रिगुणात्मिका हैं । इनके तीन नेत्र हैं, करोडों सूर्यों की भांति इनका तेज है और नाना प्रकार के आभूषणों तथा अस्त्र-शस्त्रों से सुशोभित हैं । इन्हीं की कृपा से भगवान कृष्ण की भक्ति प्राप्त होती है । सर्व शक्तिमान ये देवी परमात्मा श्री कृष्ण में विद्यमान रहती हैं । इनके बिना प्राणी जीते हुए भी मृतक के समान है ।
समय बीतने पर ब्र्ह्मा और ब्रह्माणी भगवान के ही नाभि कमल से प्रकट हुए । इसी समय श्री कृष्ण फिर दो रूपों में प्रकट हुए । वाम अंग महादेव के रूप में परिणत हो गया, जो अपने पांच मुखों से ब्रह्म ज्योतिस्वरूप श्री कृष्ण के नाम का जाप कर रहे थे और दक्षिण अंग गोपी पति कृष्ण रूप में ही रह गया ।
इस कथा से हमें यह ग्यात हो जाता है कि राधा रानी, मां कमला, भगवान शिव, व भगवान कृष्ण- इनमें कोई भी अलग नहीं है । इसलिए कहा गया है-
"एकहि साधे सब सधै" अर्थात यदि इनमें से किसी एक की भी पूरे मन से साधना की जाए तो सभी प्रसन्न हो जाते हैं ।
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कथा 2
एक बार महान ज्ञानी-ध्यानी तपस्वी ऋषि भृगु को भी यही भ्रम हो गया था । अत: उन्होंने सोचा कि जो काम-क्रोध आदि से परे है वही परमात्मा है । चलो चल कर देखा जाए कि शिव और श्री हरि- इन दोनों में कौन इनअवगुणों से परे है । लिहाजा वे पहले भगवान शिव के पास गए ।
शिव भोले जान गए कि ऋषि भृगु आ रहे हैं । उन्होंने सोचा वे श्रीहरि के ही अंश हैं अत: अपने जनक अर्थात अपने आराध्य को जगतपिता सिद्ध करना होगा । बहुत सोच विचार करके वे पार्वती जी को ले कर एकान्त में चले गए ।
जैसे ही ऋषि भृगु कैलाश पहुंचे तो भोलेनाथ भारी क्रोध करके बोले- ऋषिवर ।
आप बिना आग्या यहां कैसे प्रवेश कर गए ? उन का क्रोध देख कर ऋषि भृगु उल्टे पांव लौट गए और वैकुण्ठ द्वार पहुंच गए । वहां माता लक्ष्मी श्री हरि के साथ बैठी हुई थी । ऋषि भृगु ने श्री हरि को
क्रोध दिलाने के लिए उनकी छाती पर लात मारी । श्री हरि ऋषि भृगु के चरणों में बैठ गए और पूछने लगे- ऋषिवर । मुझ से ऐसी कौन सी भूल हो गई ? तब ऋषि भृगु बोले- मुझे क्षमा कर दीजिए भगवन । मैं तो आपकी परीक्षा लेने आया था । किन्तु मेरा सारा भ्रम दूर हो गया । ================================================
1. ओम दामोदराय नम:=3000जप से 3 लाख जाप करें
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