185 दिल समुद्र सा , बहाव नदी सा





 
नज़दीक  से   देखा  समुद्र को  मैंने  

 दिल   समुद्र  सा लगता है

 ख्वाहिशें लहरों  सी  उठती हैं

  " पर  बहाव इसका  नदी  सा  है" 
 
              [ 2 ]

पानी  जैसे समुद्र में 

तेज़ गति से उछलता  है

पर  देख  किनारे   को  वह  अपने

सीमा  में   अपनी  रहता   है 

अनुशासन  के   हैं  क्या  मायने

बाखूबी  वो   जानता  है

इसीलिए  तो  उठती   लहरों को

सहजता  से  सम्भालता   है  ॥

        [3]

 नहीं  देखा    ऐसा    संयम    

जैसा    देखा   मैंने  उसमें   

  वरना ‎‎ह   जाती    हैं   "मज़बूत  चट्टानें," 

  उठती  सुनामी   लहरों   में ॥

       [4]

नीर  आंखों से  बहने  लगता  है

गति  धीमी  पड़  जाती है

बहुत  हुआ  ये  मोड़-मुड़।व

 सोच  कर  ठहर  जाती  है 

हारने  लगता  है  मन  अपना

पर  लहरें  शोर  मचाती  हैं

बहाव  हिम्मत  का - नदी सा  उसका

मंज़िल से  पहले  रुक  जाती  हैं

           [  5 ]

नीर  तो  बहता है नदियों  में   भी

पोखर ,  जलाशयों,  झरनों   में   भी

सीमित  न   रहता  पानी  उनका

  तट, कगार  हैं  उनके  भी

                [ 6 ]

कोशिश  करना  एक  अग्नि-तप है 

हर  किसी  के  बस की  बात  नहीं

लगाम  मन  के   घोडों   की  कसना

 खास   में  होती , आम  में  नहीं

उन  खासमखास  लोगों  में

मैं  खास  क्यों  नहीं  ?

बहाव  मेरा  नदी सा  है

समुद्र  सा  होता  क्यों  नहीं  ?

          [ 7 ]

दिल  समुद्र  सा,  

बहाव  नदी  सा

ये बात तो  कुछ ठीक  नहीं 

बहाव  तेज़  सीमा  को   लांघे 

कतई यह  सटीक  नहीं 

         [ 8]

समुद्र   कितना   हौंसलेमंद  है 

हिम्मती,  साहसी,  ज़ुर्रतमंद   है

लाख  मचलें   लहरें  उसकी

रहता तब  भी   सीमा-बंद  है 

             [ 9]

सोच  लेता  है  मानव  जब

थोड़।  सा  उल्लंघन  तो  चलता  है

थोड़।  सा पाप, थोडा अपराध 

कोई   फर्क  नहीं  पडता   है

यही  सोचते दूर  कहीं

अनजाने  निकल  जाता  है

 समय  निकल  जाता है जब

शैय्या  पर  पड़।  पछताता  है

आह! "बहाव  नदी  सा,  मैं समुद्र सा"

रह रह  कर  उसे  तड़पाता  है 

            [10] 

नदियां  रुक कर धीरे  ही सही

मंज़िल  अपनी  पा  लेती  हैं

बीच  रास्ते  जोश  को  खो  कर

होश  में  वे  आ  जाती हैं

दिल  समुद्र  सा  हम  सब  को

ऊंचा  उड़ना  सिखाता है

बहाव  नदी  का  धीरे‌-धीरे

मंज़िल  पाना  सिखाता  है

          [ 11]

उठने  दो   समुद्र  की  भांति 

लहरें  तुम अपने  मन  में

पा लो  मंज़िल  तुम  अपनी

चाहे  कितने  मो
ड़  मुड़ें  मार्ग  में 

चाहे  कितने  मोड़  मुड़ें  मार्ग  में  ॥

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                                                       लेखिका-निरुपमा   गर्ग


 






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