154 जनता जनार्दन
चुनाव आया, चुनाव आया
ज़ोरज़ोर से लालटेन दहाड।
मंच पर चढ़
शेर की भांति
दीपक ने भी उसे ललकारा ।
[1]
लालटेन बोला-भाइयों !
दीपक में दम नहीं
उसका-हमारा मेल नहीं ।
[2]
इत्ते से तेल से तो यह जलता है
तले अंंधेरा रहता है
जुगनू सा प्रकाश है इसका
हवा चले, बुझ जाता है ।
[3]
संभाल नहीं सकता अपने को
पडता है देखना कईं बार
क्या रखेगा वो ध्यान जनता का
जिसे पडता है देखना बार-बार ।
[4]
जल भी जाता है गर थोडी देर
शीघ्र उत्साह कम हो जाता है
न तेल रहता , न बाती रहती
वौज़ूद खतम हो जाता है ।
[5]
हमारी लालटेन- देखो भाइयों !
देर तक रोशनी देती है
बीते समय थी जनता की पसंद ये
आज भी पसंंद ही रहती है ।
[6]
बडे घरों और रेस्तरां में
सबके मन को भाती है
वोट की अधिकारी इसलिए बन्धुओं !
लालटेन ही बन जाती है ।
[7]
लालटेन की बात सुन कर
तिलमिला गया झट दीपक
बोला-
बस ऊपर की शोभा
वरना श्रीहत है , है तेज़ रहित
मद्धम है और प्रभा रहित
[8]
अरे धूल से लिप्त है इसका शीशा
लाख छिपा ले अपना मुखड।
ढूँढ लेते है लोग मगर
धुंधला हो चाहे कितना सीसा [कांच ]
[9]
भाइयों । दीप- दीप जब जले तभी दीवाली है
एक सूत्रता अपनी परम प्रण।ली है
प्राणों में हम दीप जलाएं प्यार का
यही उज्जवल अर्थ है
'अपने दीपक ' के- चुनाव चिन्ह का
[10]
भीड में थी एक बूढी दादी
मंच पर आ गइ झट वो काकी
बोली-
सब अपनी- अपनी कहते हैं
पल में तौला, पल में माशा
पल पल ये बदलते हैं
सकी कुर्सी ऊंची दिखती
वहीं गिर-गिर चढ़ जाते हैं
आज इस दल में, कल उस दल में
रोज दल बदलते हैं
[ 11]
पैसा, कुर्सी इमान है इनका
लपके लपके घूमते हैं
कभी इस पाले, कभी उस पाले
गेंद की तरह लुढकते हैं
बोलो तुम जनता जनार्दन !
तुम सब क्या अब चाहते हैं ?
[12]
दीपक कहता- "लालटेन बदलो"
लालटेन कहती-" दीपक बदलो"
अरे बदलाव की तो है तुम्हें ज़रूरत
मैं कहती हूं " तुम दोनों बदलो"
[12]
काम नहीं तो वोट नहीं
किसी से कोई पक्षपात नहीं
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर
भला न करे जो जनता का
मना ले वह पार्टी अपनी खैर ।
[13]
दादी को सुन बजी तालियां
बन्द अकल की खुली तालियां
"काम नहीं तो वोट नहीं"
सुन कर भागी सब पार्टियां
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लेखिका- निरुपमा गर्ग
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