152. अह्सास आखिरी पल का-एक लघु कथा

                 

                       ज़िन्दगी  धारा है वक्त की, अविरल  सी वह बहती  है

                  अरमानोंं के भार  उठाती, इतराती,बल  खाती ,अन्तिम मन्ज़िल जब पाती है,

"सही मायनों में जीना था कैसे ?" तब जा कर वह सिखाती है

"ज़िंदगी के रंंग हज़ार " यह कहते अक्सर लोगों को कहते हम सुनते हैं । कोई अपने जीवन में पुन्यों के रंग भरता है तो कोई पापों के । ये रंग भी अजीब हैं किसी को पक्के  चढ़  जाते  हैं  ,किसी  को  कच्चे  ।

कहने  को  तो  ये  रंग  हैं   पर   दिमाग  इनका   मनुष्य  से  भी  तेज़  है  । ये     मनुष्य  को  पहले  परखते  हैं  फिर  उस  पर   चढ़ते  हैं   ।  फलस्वरूप  ये  नहीं,  अपितु    मनुष्य   इनके  रंग  में  रंगने   लगता  है  । और  समझ  ही   नहीं  पाता कि  वह  कब,कैसे,और  कितना   रंग में  रंंग  गया  ।  काला,  नीला,पीला  कोई  भी  रंग   एक  बार   उसे   चढ़   जाए   उसे  वही   अच्छा  लगने   लगता   है  । वह  यह   सोचना  ही   नहीं  चाहता  कि  वह   रंग  उसके  जीवन  को   बदरंग   बनाएगा  या  सुंदरता   में   चार  चांद   लगाएगा  । उसके   स्वभाव , कर्म व सोच को कौन सी दिशा देगा । ज़िन्दगी भर मानव चलता जाता है, चलता जाता है,

" कभी परिन्दोंं को पानी पिलाता, कभी बन्दूक चलाता है "

कभी जीवोंं की सेवा करता, कभी उन्हें तड़पाता है 

खुदा की सोच को दरकिनार कर, मनमाने  ढंंग से  चलता  है ॥"

कभी वह  बेखौफ, निडर हो  कर  सरेआम पाप- कर्म  करता  है और  कभी  छिप  कर ।  वह बेखबर   रहता  है   कि   कोई  है   जो  उसके   साथ  चल  रहा है  और   उसकी   वीडीओ   रील   बना   रहा  है  जो  उसे   आज   नहीं   उसकी  मृत्यु   शैय्या पर  दिखाने  वाला   है  ।  तब  उसकी  कोई   चालाकी,  कोई   साज़िश  काम  नहीं  आएगी  ।  और  भाग   कर  कहां  जाएगा  । उसको  बांधने  वाला   वह   फंदा   होगा  जिसे  वह   काट  नहीं   पाएगा  । 

अत्यन्त  महत्वाकांक्षी, क्रूर,अत्याचारी  औरंंगज़ेब  को  कौन नहीं  जानता ?  जिसने हुकूमत में कई झंडे गाड़े  ।  वह ज़िन्दगी  भर  केेवल और केवल अपने स्वार्थ  के लिए  ही जीआ ।  खुद अपने  पिता शाहजहाँ को  भी तख्त हथिया लेने के डर से कैद करके रखा । अपनी  प्यारे  भाई दारा  शिकोह, जिसके साथ  वह  बचपन  में  खूब   ह्ंंसता-खेलता  थाउसी  का  मस्तक  लहुलुहान  कर  दिया ।  भाई मुरादबख्श ने राजा रामसिंह के भयंकर वार से उसे बचाया, पर बदले में  उसेभी  उसने मौत दे  दी । ‘जजिया’ माफ करने की माँग करने आये हजारों  हिन्दुओं  पर  हाथी चलाया !   मराठों की हिम्मत पस्त करने के लिए उसने क्या क्या  नहीं किया था, उसने शंभाजी का वध किया ।  इस्लाम का नाम दुनिया में बुलन्द करने के लिए उसने कितनी कारवाइयाँ की थीं , कसाब   की   तरह  उसे भी   ऐसे  ही  लगता   था  कि  उसने  सब  कु इस्लाम के लिए, मजहब के नाम पर  ही किया है । धर्म  क्या होता है ? ये  उसे  उसके जीवन ने  नहीं, मौत ने  सिखाया । कहते हैं  कि  "धर्म  की असली  परिभाषा  क्या  है  ?" - इसका  ग्यान   दो   ही   स्थानों  पर   होता  है - एक  अस्पताल  में,   दूसरा  मृत्यु   शैय्या    पर  । अस्पतालों  में  किसी भी मज़हब  का व्यक्ति   किसी को  करहाते देखता है तो उसका दिल ज़रूर  पसीजता है । उसे लगता है कि  वह जैसे भी हो  उसकी  मदद करदे  । और  जो व्यक्ति   मृत्यु   शैय्या  पर होता है  वह अपने  गुनाहों  की माफी  मांगते  नज़र  आता है  ।   ठीक  ऐसा  ही शहंंशाह  औरंगजेब  के साथ   हुआ  ।

                औरंंगज़ेब अब  धीरे- धीरे   मौत की ओर ढ़ रहा  था । अवस्था उसकी 89 वर्ष की हो गयी थी।  खांसी   व  ज्वर  ने  यम  के  दूतों   की तरह उसे  जक लिया था ।  इस्लाम का झण्डा पूरे हिन्दोस्ताँ पर फहराने की ख्वाहिश   रखने  वाले  के  पास   अब  उसकी   बेटी  जीनत  के  अतिरिक्त  और  कोई  नहीं  था जो उसे दवा पीने की अर्ज करती  तो  वह कहता है-‘दवा नहीं दुआ करो, मेरे लिए दुआ से बढ कर कोई दवा नहीं है ।आश्चर्य  एक अत्याचारी  बादशाह दुआ किससे और  क्यूं  मांग  रहा  था ? 

        क्योंकि  एक एक करके अपने जीवन की वे सारी घटनाएँ याद आ  रही थी ।  उसके पापी ह्र्दय को चीर रही  थी  ।  आजार अवस्था में वह होश भूल रहा था । उसे अपने सामने घुटने टेककर गिडगिडाते शाहंशाह शाहजहाँ दिखाई दे  रहे  थे, जो कह रहे थे ‘आलमगीर हमें अपना बेटा औरंगजेब वापस कर । बादशाही लिबास पहन कर हमारा बेटा बदल गया है !’ अपने पिता को मृत्यु पर्यन्त कैद रखने का  पश्चाताप आज उसे बुरी तरह पीडा दे रहा था । अपने भाई के खून में रँगे अपने हाथों को वह मस्तक पर रखकर अपने किये हुए गुनाह से बचने का वह व्यर्थ प्रयत्न कर रहा था ।   वह हकीम से ऐसी दवा चाहता था, जो बेहोशी में गर्क कर दे और बर्दाश्त न होने वाले इन दृश्यों से छुटकारा पा  जाए। परन्तु  उसके  प्राण  बिना  उसके  गुनाहों  का हिसाब  लिए  जाना नहीं चाहते ।वह अल्लाह  से अपनी  मृत्यु  मांग  रहा था  पर वह  उसे कह  रहा  था -ऐ बादशाह !  तुझे  मैं  नहीं, अपितु  उन लोगों की  मुआफी  मौत   दे  सकती  है  जिन पर तूने  बेरहमी से  ज़ुल्म   ढहाए  हैं  । बस  फिर क्या  था - जो  हाथ  कत्ल  करने के लिए  उठते थे, वे  अल्लाह  का फरमान  सुन  कर रहम  की भीख मांगने  लगे ।

         ऐसा  लग रहा था  जैसे  भारी पछतावे ने  उसकी आत्मा पर गंंगाजल  छिड़क  कर उसे पवित्र कर  दिया हो । वह कातिब को बुला कर वह अपने बेटों को खत लिखवाने  लगा , जिसमें  उसने अपने जीवन भर के कुकर्मों का पछतावा ब्यान कर दिया और बेटों को सीधे राह चलने की हिदायतें तथा नसीहत दी । और अंत  में  उसने जहांआरा को  बुलाया और विनती की कि वह अल्लाह से कहे कि उसने उसे मुआफ  कर  दिया है  ताकि  उसके प्रान  जल्द से  जल्द  छूट  जाएंं  । जहांआरा ने  उसका  अंत  समय  निकट   जान  कर नमाज़  अदा की । तत्पश्चात औरंंगजेब अपने अपराधों की क्षमा चाहता हुआ आलमगीर, दारा, शुजा, मुराद के नाम लेते हुए अजान के अल्ला हो अक… शब्द दुहराते हुए ही अव्वल मंजिल फर्मा गया। 

 परन्तु  आखिरी  पल  में   ही  क्यूं ?  ऐसा क्या है  वो  पल  जो  क्रूर से क्रूर  इंसान  को  भी  मानवता  की ओर  झुका देता  है  जीते जी  ऐसा  क्यों  नहीं होता ?  वह  पल  है ईश्वर की  अदालत का,  जहां  पल-पल का  हिसाब  है-गुनाहों का ।  दुनियावालों  से  चालाकी  से बचा  जा  सकता  है वहां कोई नहीं बच  सकता । सबूत मिट।ए  जा सकते  हैं, गवाहों  को खरीदा जा सकता है, झूठ  बोल कर  अपने को साधु  दिखाया जा सकता है पर  ईश्वर के  आगे  एक नहीं  चलती । उसने  भी  सब का  पक्का  इंतज़ाम  कर रखा  है । ऐसा नहीं  है  कि  उसने  इंसान  को  बताया  नहीं । उस ने  तो  वेद-  पुराण के माध्यम  से सब को  बराबर  ग्यान  दिया  है  -

                              "मानवता ही  सच्चा  और सर्वोच्च धर्म है"

                           तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर |

                          असक्तो ह्राचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ||१९ || 

परन्तु  मानव ने  उसे ग्रन्थों  में बन्द कर  दिया । कभी खोला तो उसे समझा नहीं ,यदि समझा तो  अपनाया नहीं  तो  दोष  किसे दें - विधाता  को   या   मानव   को ? स्वभावत:  कोई नहीं कहेगा  कि दोष  उसे  दिया जाए , भले ही उसे  पता हो  कि  वही कसूरवार  है  । यही तो  विडम्बना है  । 

 पर  एक  बात तो तय  है  कि   मनुष्य कितना भी  शक्तिवान  हो ,  वह   आखिरी  पल   हार  ही  जाता  है   । यह भी सत्य  है कि  कुछ लोग इतने अहंकारी होते  हैं कि  उन्हें  केवल भगवान ही  बस  में  कर  सकता है । उन्हें  दूसरे  तो  क्या, अपने भी बस में  नहीं  कर  सकते ।

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                                                                 लेखिका-निरुपमा गर्ग

             

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