151. भाग्य/कर्म [ कविता ]
कविता
भाग्य-कर्म की हुइ लड।ई
विद्वानों की गई सभा बुलाई
कभी भाग्य की ,कभी कर्म की
जम कर हुई टांग खिंचाई
[2]
देख कर इतनी गर्मा-गर्मी
बोले विद्वान-भाग्य व कर्मी
कटू करते हो क्यूं अपनी वाणी
हो दूध का दूध और पानी का पानी
रखो अपने तर्क-वितर्क
अभी करते हैं विवेक में फर्क
[3]
पारा हुआ दोनों का तेज़
थम न रहा था किसी का वेग
बाढ़ न आ जाए यूं ही क्रोध की
मौके सिर आ पहुंचे वेद
[4]
बोलो भाग्य-तुम बोलो
क्या कहना तुम चाहते हो ?
रखो तर्क बेझिझक तुम
गर अभी फैंसला चाहते हो
[5]
सुनो मान्यवर! बोला भाग्य
मै मानव का भाग्य -विधाता हूं
सुख-दु:ख हो या यश-अपयश
मै ही इनका दाता हूँ
[6]
परमपिता ब्रह्मा की लेखनी,
उनकी लिपि, लिखावट हूं
मै तकदीर, माथे की लकीर
हाथ की मैं ही तहरीर भी हूं
[7]
मैं ही होनी, अनहोनी
कोई न मुझे रोक सकता है
नहीं किसी में इतनी ताकत
जो मुझे मिट1 सकता है
[ 8 ]
कितना यत्न कर ले यह कर्म
दिशा मैं तय करता हूं
इसे हराना मेरे बस में
जीत भी मैं ही दिलाता हूं
[9]
मैं चाहूं तो राजसिंहासन
पल में इसे दे सकता हूँ
न चाहूं तो एक झटके में
नीचे इसे गिरा सकता हूँ
[10]
बड़े -बड़े राजा-महाराजा
ग्यानी,योगी व कर्मयोगी
मेरे समक्ष हार गए
पांचों पांडव वन में भटके
हरिश्चन्द्र कंंगाल हुए
[11]
कुल मिला कर मैं ही जीवन
मुझ पर आश्रित सन्सार आजीवन
" मैं भाग्य विधाता, " "मैं संंजोग"
" मैं ही सन्धि", "मैं वियोग"
मैं जीत-हार, मैं हास-परिहास
मैं ही खन्डीवन, मैं उज्जीवन
मैं ही बाह्य और अंतर्जीवन
[12]
इतना कह कर भाग्य जब
अपने स्थान पर बैठ गए
तब कर्म को उसी समय
वेदों के आदेश हुए
[13]
विनीत, विनम्र सुशील कर्म
हाथ जोड कर खड1 हुआ
बोला- क्या बोलूं मै इसके उत्तर में
सब कुछ तो इस ने बोल दिया
बोलने को अब कु छ · शेष नहीं है
जो कु छ वैसे बोला इसने
कु छ उसमेंं विशेष नहीं है
[14]
भाग्य तो मेरी ही उपज है मान्यवर !
मुझ से ही इसका उद्भव हुआ
मैं अच्छा तो यह अच्छा
मै बुरा तो यह बुरा
पहचान भले ही अलग हमारी
चोली- दामन का है साथ हमारा
[15 ]
जो भाग्य ने कहा- बिल्कुल सत्य है
पर
"वह सब का जीवन है"
यह असत्य है
मैं कर्म हूँ,
मैं ही भाग्य बनाता हूँ
जीवन कैसा होगा-इसका सांचा
तैय्यार मैं ही करता हूँ
यह कह कर नीचे वह बैठ गया
बिना तर्क-वितर्क के झगड्। उनका निपट गया ॥
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धन्यवाद !
लेखिका-निरुपमा गर्ग
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