147. आत्म-मंथन [ कविता ]
बंद दरवाज़े कर, मैं तन्हा
इक रोज़ कुर्सी पर बैठी थी
चाय का प्याला हाथ में ले कर
इधर-उधर-----------
जाने क्या मैं देख रही थी
"खटखट- खट" इतने में
आवाज़ सी एक अचानक आई
सूने-सूने मेरे मन को
वो अजनबी थी कितनी भाई
है कोई शायद, देखूँ ज़रा
अभी उठ कर मैं सोच रही थी
झट से भीतर आया कोई
मैं न उसे पहचान रही थी
न कोई रंग, न कोई रूप
न कोई आकार, न प्रकार
नहीं दिख रहा था आगन्तुक कोई
आ कर बैठ गया वह ऐसे
जैसे चिर-परिचित हो कोई
बचपन की याद दिला कर
वह कभी मुझे हंसाता था
मित्र गलत थे मैं ठीक थी
उचित मुझे ठहराता था
फ़िर यहाँ गलत थी, वहाँ गलत थी
दोष मुझे गिनाता था
दुःख के पल याद करा कर
ख़ूब मुझे रुलाता था
मुझ को रोता देख मित्रवत
सुख के पल याद करा कर
फ़िर से मुझे हंसाता था
पलट रहा था एक-एक करके
मेरे जीवन के वो पन्ने
कौन था जाने मेरे द्वार पर
जो चुन-चुन कर मोड़ रहा था
कुछ उनमें
पन्नों के कन्ने
झट उठ कर कुर्सी से देखा
बंद थे सारे घर के दरवाज़े
फ़िर जा कर अहसास हुआ
वो तो बैठा था मन के द्वारे
करा रहा था आत्म-मंथन
बतिया रहा था घंटों मुझ से
क्या मानती हो तुम अपने को ?
पूछ रहा था जैसे वो मुझ से
एक बार नहीं, कई बार
जब-जब मैं तन्हा होती हूँ
वो अक्सर आया करता है
बचपन से लेकर अब तक के
सब कर्म याद दिलाता है
क्या बोया मैंने, क्या काटा है
हिसाब मुझे बताता है
जो भूल गई थी कल की मैं
वह भी याद दिलाता है
दुनिया से कुछ भी छुप जाए
याद उसे सच रहता है
झूठ बोल जाएँ वकील भले ही
झूठ न कभी वह बोलता है
यह सूक्ष्म अति सूक्ष्म श्रेष्ठ आत्मा
मेरे, तुम्हारे, सब के भीतर
साक्षी बन कर बैठा है
जब भी ख़ाली बैठते हैं हम
दबे पाँव यह आता है
अगली-पिछली याद दिला कर
आइना हमें दिखाता है
[नहीं कोई गलती की है मैंने]
यही हर प्राणी कहता है
कभी बुरा नहीं किया है मैंने
गलतफहमी में रहता है
बार-बार तो इसी मकसद से
तन्हाई में आता है
आत्म-मंथन में साथ दे कर
विष बाहर कर जाता है
नहीं समझता प्राणी इसको
फ़िर विष भर लेता है
जो अपराध वह याद दिला गया
फिर से वही दोहराता है
क्या कहना चाहता है वो बार-बार
इसकी अवज्ञा करता है
अंत समय आते-आते
सब जमा कर जाता है
जब-जब तन्हा सोच-विचार में
हम सब कोई खोते हैं
समझो व्यर्थ की बातों में
काम की बातें करते हैं
जिसको हमारे वेद-शास्त्र में
अपने चित्त को खोजने वाला
आत्म-चिन्तन सा कहते हैं
"कुछ उसके हैं,कुछ मेरे दोष हैं"
आत्म-चिन्तन से -
यह भाव उजागर हो सकता है
नफ़रत व् क्रोध क़ा दानव
इस दुनिया से मिट सकता है
कहा माने जो इनका मानव
नव-उदय हो सकता है
लेखिका-निरुपमा गर्ग
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