{20} मैं बची लाचारी चाचा , इंंसानियत तो कब की चल बसी
कविता का शीर्षक : लाचारी
इंसानियत,ओ इंसानियत----अमाँ कहां हो ?
मैं हूँ लाचारी चाचा, इंसानियत तो कब की चल बसी i
हाय !------------------------
क्या हो गया था उसको----------,क्यूँ अचानक चल बसी
उम्र ही क्या थी उसकी, जो दर अल्लाह के जा पहुंची i
इत्ती सी थी जब गोद में,खिलाया था मैंने उसे
जाने समां कब बदल गया , निगल गया ज़ालिम उसे ii
गुड़िया-गुड़िया कहते थे ,अपना सब समझते थे
अपने बच्चे से ज़्यादा,दुलार उसे,
अडोस-पडौस के देते थे i
इंसानियत,ओ इंसानियत----अमाँ कहां हो ?
मैं हूँ लाचारी चाचा, इंसानियत तो कब की चल बसी i
हाय !------------------------
क्या हो गया था उसको----------,क्यूँ अचानक चल बसी
उम्र ही क्या थी उसकी, जो दर अल्लाह के जा पहुंची i
इत्ती सी थी जब गोद में,खिलाया था मैंने उसे
जाने समां कब बदल गया , निगल गया ज़ालिम उसे ii
गुड़िया-गुड़िया कहते थे ,अपना सब समझते थे
अपने बच्चे से ज़्यादा,दुलार उसे,
अडोस-पडौस के देते थे i
हाँ
जिनकी राजदुलारी थी ,
उन्होंने ही रौंद दिया
ख़ुद बच निकलने को उसने,
दुर्घटना में मरवा दिया
जिनकी राजदुलारी थी ,
उन्होंने ही रौंद दिया
ख़ुद बच निकलने को उसने,
दुर्घटना में मरवा दिया
ख़ुदा गवाह है चाचा, किसी का बुरा
नहीं उसने किया
चलती तेज़-तरार दुनिया में
शराफ़त का ये हाल हुआ
कल तक कोई बीमार हो जाय,चूल्हा उसका जलाती थी
एक आवाज़ पर आज़ भी वह भाग खड़ी हो जाती थी
रास न आई उसकी सेवा,बुरी नज़र खा गई
भेडियों की जलती भट्टी में,बुरी तरह वो झुलस गई ii
मैं बची लाचारी चाचा, इंसानियत तो अब चली गई ii
पहले राह में जाती पर, तेज़ाब किसी ने फैंक दिया
सर फिरे इक युवक ने कितना उस पर ज़ुल्म किया
कोर्ट गए,कचहरी गए,सज़ा न उसको कहीं हुई
छिन गई आज़ादी जीने की,तिल-तिल कर वो मर गई i
उम्मीद थी जिनसे सहारे की, उन्होंने ही मुंह मोड़ लिया
बेकसूर इंसानियत को समाज ने भी दुत्कार दिया ii
मैं ठहरी लाचारी चाचा,मुझ से कुछ न हो सका,
सडकों पर मैं उतर गई,इन्साफ न उसको कभी मिला i
गली,मुहल्ला और यह समाज जब तक न आगे आएगा
इंसानियत की बहनों का, यूँ ही दम घुटता जाएगा
इंसानियत जो गई सो गई,लाचारी भी इक दिन जायेगी
सियासत की रोटी, राख पर उनकी,
सदा ही सेंकी जायेगी ii
एक औरत पर क्या बीतती है
यह दर्द कोई क्या जाने
ज़िंदा लाश बन जाती है नारी
समझ लो इसके यह हैं मायने ii
कल तक कोई बीमार हो जाय,चूल्हा उसका जलाती थी
एक आवाज़ पर आज़ भी वह भाग खड़ी हो जाती थी
रास न आई उसकी सेवा,बुरी नज़र खा गई
भेडियों की जलती भट्टी में,बुरी तरह वो झुलस गई ii
मैं बची लाचारी चाचा, इंसानियत तो अब चली गई ii
पहले राह में जाती पर, तेज़ाब किसी ने फैंक दिया
सर फिरे इक युवक ने कितना उस पर ज़ुल्म किया
कोर्ट गए,कचहरी गए,सज़ा न उसको कहीं हुई
छिन गई आज़ादी जीने की,तिल-तिल कर वो मर गई i
उम्मीद थी जिनसे सहारे की, उन्होंने ही मुंह मोड़ लिया
बेकसूर इंसानियत को समाज ने भी दुत्कार दिया ii
मैं ठहरी लाचारी चाचा,मुझ से कुछ न हो सका,
सडकों पर मैं उतर गई,इन्साफ न उसको कभी मिला i
गली,मुहल्ला और यह समाज जब तक न आगे आएगा
इंसानियत की बहनों का, यूँ ही दम घुटता जाएगा
इंसानियत जो गई सो गई,लाचारी भी इक दिन जायेगी
सियासत की रोटी, राख पर उनकी,
सदा ही सेंकी जायेगी ii
एक औरत पर क्या बीतती है
यह दर्द कोई क्या जाने
ज़िंदा लाश बन जाती है नारी
समझ लो इसके यह हैं मायने ii
महिलाएं सांसद आएं आगे
तो चाचा, कुछ अच्छा होगा
शासन बदला, अब नीतियाँ बदले
तो कह सकते हैं बदलाव होगा
"बेटी बचाओ, बेटी पढाओ "
नारा तो लगा था ज़ोरों से
"इंसान बचाएं,इंसानियत पढाएँ"
कोई अब भी कह दे पूरे जोरो-शोरों से
वरना आयेंगी सरकारें , जायेंगी
इन्सानियतों का जनाज़ा निकलता रहेगा
जल्द ही उन के पीछे-पीछे
लाचारी का नम्बर लग जाएगा ii
- निरुपमा गर्ग
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