180 . हे अमर जवान ज्योति ! अमर रहो ! तुम अमर रहो ।
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[ 1 ] हे अमर जवान ज्योति ! तुम शोला बन कर वीरों के दिल में धधकती हो गोलों के तेज़ धमाकों में बिजली सी बन चमकती हो जलते अंगारों में कूद कहीं लाशों के ढेर पर गिरती हो फिर सन्नाटे के अंधियारे में खामोशी से जलती हो बुझने न पाए धरती का दीपक सुपुर्द अग्नि हो जाती हो [2 ]