151. भाग्य/कर्म [ कविता ]
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कविता भाग्य-कर्म की हुइ लड।ई विद्वानों की गई सभा बुलाई कभी भाग्य की ,कभी कर्म की जम कर हुई टांग खिंचाई [2] देख कर इतनी गर्मा-गर्मी बोले विद्वान-भाग्य व कर्मी कटू करते हो क्यूं अपनी वाणी हो दूध का दूध और पानी का पानी रखो अपने तर्क-वितर्क अभी करते हैं विवेक में फर्क [3] पारा हुआ दोनों का तेज़ थम न रहा था किसी का वेग बाढ़ न आ जाए यूं ही क्रोध की मौके सिर आ पहुंचे वेद [4]