218.. श्री नारायण क्वच
यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान्। क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम् ॥१॥ भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्। यथाऽऽततायिनः शत्रून् येन गुप्तोऽजयन्मृधे॥२॥ अर्थ:- राजा परिक्षित ने पूछा – भगवन्! देवराज इंद्र ने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओं की चतुरङ्गिणी सेना को खेल खेल में अनायास ही जीतकर त्रिलोकी की राज लक्ष्मी का उपभोग किया, आप उस नारायण कवच को सुनाइये और यह भी बतलाईये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमि में किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की॥१-२॥ श्री शुक्र उवाच वृतः पुरोहितोस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते। नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु ॥३॥ अर्थ:- श्री शुक्रदेव जी ने कहा- परीक्षित्! जब देवताओं ने विश्वरूप को पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्र के प्रश्न करने पर विश्वरूप ने नारायण कवच का उपदेश दिया तुम एकाग्र चित्त होकर उसका श्रवण करो॥३॥ विश्वरूप उवाच धौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ् मुखः। कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः॥४॥ नारायणमयं वर्म संनह्येद्भय आगते। पादयोर्जानुनोरूर्वोरूदरे हृद्यथोरसि ॥५॥ मुखे शिरस्...