242 "मैं निर्दोष हूं'- अध्यात्मिक कथा

 



एक बार नारद  धरती का भ्रमण करने पृथ्वी पर उतरे । चारों ओर सुन्दर सरोवर, समुद्र व हरियाली  देख कर उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई । उन्हें लगा-कि मृत्यु लोक कितना सुन्दर है,इतने ही सुन्दर यहां के लोग होंगे, चारों ओर खुशियां होंगी । सोचते-सोचते  जैसे ही वे आगे बढे , उन्हें चीखो-पुकार सुनाई देने लगी । कोई जख्मी है,कोई बीमार है, कोई
वियोग में तडप रहा है ।  उनके लिए यह सब देखना चंद क्षण ही कठिन हो गया । वे भागे-भागे भगवान नारायण के पास गए औरबोले- हे जगत नारायण । आप से ही यह सारा जगत व्याप्त है , संसार का सुख -दुख सब आप केही हाथ में है । आप  सबके पिता समान हैं फिर आप जगत-पिता अपनी सन्तानों को दु:ख कैसे दे सकते हैं?   इतना सुन भगवान नारायण बोले- नारद । तुम्हारा कथन अनुचित है । किसी के सुख-दु:ख में मेरा कोई हाथ नहीं है। 
                                                   " मैं सर्वथा निर्दोष हूं । 
नारद हंस पडे, बोले- वाह प्रभु । क्यं भोले बन रहे हो नाथ। यह बात भला किससे छिपी है कि आप अपने चक्र से इस समस्त संसार को घुमा रहे हैं । पालन करने वाले आप, रक्षा करने वाले आप, तथा संहार करने वाले भी आप ही हैं । फिर आप निर्दोष कैसे हुए? भगवान बोले-नारद। जो कुछ मैंने कहा वही सत्य है । चक्र मैं नहीं घुमाता, बल्कि यह संसार स्वतन्त्रता से घुमा रहा  है । उसका मन करता है  पाप की ओर घुमा देता है जो उसे दु:ख देता है और जब मन करता है तो पुण्य की ओर घुमा देता है जो उसे देता है । यदि तुम्हें कोई शंका हो रही है तो तुम एक बार पुन: जाओ । यदि मैं मिथ्या साबित हो जाऊं तो मैं तुम्हारी अदालत में एक दोषी की भांति सिर झुका कर खडा हो जाऊंगा । "तो ठीक है भगवन।" ऐसा कह कर नारद पुन: पृथ्वी पर उतरे । उनकी लोगों से भेंट होने लगी । वे घूम-घूम कर  लोगों की गतिविधियों का जायज़ा लेने लगे । थोडी ही देर में उनका भ्रम टूटने लगा । जिस दुनिया को वे इतनी सुन्दर समझ रहे थे वह खोखली निकली । सब लोग बडे-बडे मगरमच्छों की भांति एक दूसरे को निगल लेने को  तत्पर थे । कहीं बच्चे माता-पिता को  कोसते हुए  उन्हें बाहर निकाल रहे थे, कहीं उनकी हत्या कर  रहे  थे, कहीं भाई भाई का सम्पत्ति के लिए दुश्मन बन रहा था। कहीं बहू-बेटे माता-पिता के साथ दुर्व्यवहार कर रहे थे,उनका दिल दुखाने के लिए कडवे शब्द-बाण चला रहे थे तो कहीं सास-ससुर ने बहू का जीना दुश्वार कर रखा था। कहीं पति पत्नी की वजह से आत्म-हत्या कर रहे थे तो कहीं पत्नियां पतियों की वजह से उजड रही थी , जल रही थीं, मर रही थीं। कहीं मित्र मित्र को धोखा दे रहे थे ,उसकी हत्या कर रहे थे तो कहीं दुश्मनी में गले कट रहे थे, पत्नियों के पति, प्रेमिकाओं के प्रेमी टुकडे कर कर फैंक  रहे  हैं । न बडों का खौफ, न कुकर्मों  के  फल का खौफ, न यम यातना का भय । राजा से ले कर रंक तक सबके सब दुराचारी व भ्रष्टाचारी दिख रहे थे, चारों ओर ईर्ष्या, द्वेष, धोखा, लूट- दुर्गन्ध फैला रही थी । फिर भी हर कोई कह रहा था कि -
                                                  " मैं निर्दोष  हूं "
नारद का मन मलिनता से भर गया । इतने जघन्य अपराध ! ये लोग नि:सन्देह माफी के लायक नहीं हैं । इन्हें तो कडी  से कडी सजा होनी ही चाहिए । दु:खी मन से वे भगवान नारायण के धाम  रवाना हो गए । उन्हें देख कर श्री हरि मुस्कुराए और बोले- कहो नारद । 
                                                        " मेरे लिए क्या सजा है? "
नारद झेंप कर उनके चरणों में झुके और बोले- मुझे शर्मिन्दा न कीजिए,भगवन । हे दीन-बन्धु,दीनानाथ! भला सत्य की मूरत, गुणातीत, सर्वश्रेष्ठ आत्मा अर्थात  परमात्मा में  भी कोई दोष हो सकता है ? मुझे सब चक्र समझ  आ गया  है, प्रभू । धन्य हैं आप जो इतने  बडे अपराध करने  वाले प्राणियों पर भी दयाभाव रखते हैं ।  मैंने  आप पर शंका करके बहुत बडा अपराध किया है, मुझे क्षमा कर दीजिए , क्षमा कर दीजिए ।  ऐसा कह नारद  दीन स्वर में रो पडे । भगवान ने नारद को उठा कर गले लगाया और उपहास करते हुए  कहा- अब कह भी दो  नारद- कि
                                                             " मैं  निर्दोष हूं"
नारायण,नारायण । नारद ने हंस कर  खडताल  बजाई और  नमस्कार करके वहां से  जाने  की  आज्ञा  मांगी ।
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